Sunday 30 March, 2008

निवडक वपुं ३

आपण जेव्हा जेव्हा काही ना काही बोलू,

तेव्हा तेव्हा त्या बोलण्यातून काही प्रगल्भ विचारांची देवाणघेवाण होते का ते पाहावं.

असं प्रत्येकाने ठरवलं तर अनेक आवाज गप्प होतील.

कारण नेमकं तेच बोलायचं म्हणजे वाचन आलं, चिंतन आलं, मनन आलं,

आपल्या गप्पांतून लाव्यालाव्या किती, निन्दानालस्ति किती, आणि सम्रुध्दता किती ह्याचा विचार व्हावा.

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आजही देशस्त, कोकणस्थ, करहाडे, c.k.p.., लींगायात, s.k.p., हे भेदभाव नाहीत का?

समोरची व्यक्ती ही आपल्यासारखीच जितिजागाती आणि सुशिक्षित माणूस आहे, ह्याचा कितपत विचार होतो?

सौंदर्याच्या बाबतीतही प्रत्येकाच्या वेगवेगळ्या अपेक्षा असतात, त्यातही भेदभाव आलाच.

गरीबी आणि श्रीमंतीचे राक्षस अजुन मधे येतात.

परंपरा, संस्कार, मानपान, देवाणघेवाण अशा किती क्षुद्र गोष्टींभॉवती आजही आपण वावरत आहोत?

कशाच्या आधारावर आपण स्वतःला माणूस म्हणवून घ्यायचं?

ह्या असल्या गोष्टी follow करणार्‍यांना किंवा indirectly त्या गोष्टींना सपोर्ट करणार्‍यांना माणूस म्हणताच येणार नाही.

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उथळ विचारांची माणसं देवावर आणि दैवावर विश्वास ठेवतात,

शहानी आणि समर्थ माणसं कार्यकारणभावावर विश्वास ठेवतात..

अस्थिर माणसं जशी बारमधे सापडतात तशी सिधदिविनायकाच्या रांगेतही..

अर्थहीन श्रध्दा ही व्यसनासारखीच...

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त्यांनी बघावं म्हणून मी इथं येत नाही. it is a part of the game! पुरूष पाहणारच.

स्वाभाविक गोष्टींवर् चिड्ण्यात अर्थच नसतो.

भुंगे जमावेत म्हणून कमळ फुलत नाही, अणि एखादं कमळ पकडायचं असं ठरवून भुंगे भ्रमण करत नाही.

फुलणं हा कमळाचा धर्म, भुलणं हा भुंग्याचा धर्म. जाणकारानी, रसिकांनी कमळाकडे पहावं, भुंग्याकडे पहावं आणि फुलावं कसं आणि भुलावं कसं हे शिकावं.

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ज्योत’ म्हटलं की ती झंझावातात विझणारच असं माणलं जातं.

सगळ्या ज्योती विझतात. विझत नाही तो प्रकाशाचा धर्म.

कायम उरतो तो प्रकाश. आणि ज्योतीचा जय होणार नाही असं कशावरून?

आयुष्य केवळ ज्योतीला असतं असं नाही,

झंझावातालाही असतं.

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एकदा केव्हातरी शांतपणे बसावं आणि वयानुसार आपण काय काय गोष्टी सोडल्या ह्याचा आढावा घ्याचा. मग लक्षात येतं, की आपण गाभुळलेली चिंच बरयाच वर्षात खाल्ली नाही, जत्रेत मिळणारी पत्र्याची शिट्टी वाजवलेली नाही. चटक्याच्या बिया घासुन चटके द्यावेत असं आता वाटत नाही, कारण परीस्थितीचे चटके सोसतानाच पुरेवाट झालेली असते. कॅलिडोस्कोप बघितलेला नाही. सर्कशितला जोकर आता आपलं मन रिझवु शकत नाही. तसंच कापसाची म्हातारी पकडण्याचा चार्मही आता राहीलेला नाही. कापसाच्या त्या म्हातारीने उडता उडता आपला "बाळपणीचा काळ सुखाचा " स्वत: बरोबर कधी नेला ते कळलंच नाही. त्या ऊडणारया म्हातारीने सर्व आनंद नेले. त्याच्या बदल्यात तिच वार्धक्य तिने आपल्याला दिलं. म्हणुन ती अजुनही ऊडु शकते. आपण जमिनीवरच आहोत

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बाह्यरुपावर काय आहे, असं म्हणण्यात काही अर्थ नाही. अंतरंगाचा विचार करायची वाट बाह्यरुपावरुन जाते. "दिसण्यात काय आहे? माणसाचं मन पाहावं" हा युक्तिवाद बुद्धीचा, तो मनाचा कौल नाही.

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खर्च झाल्याचं दु:ख नसतं, हिशोब लागला नाही की त्रास होतो.

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पावसातून भटकताना अंगावरचा शर्ट भिजतो , तेंव्हा काही वाटत नाही. तो अंगावरच हळू हळू सुकतो त्याचंही काही वाटत नाही.सुकला नाही तरी ओल्याची सवय होते.पण म्हणून कोणी ओलाच शर्ट घाल म्हटले तर.....

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मित्रांकडे, नातेवाईकांकडे आपण जातो....पाहुणचार होतो... चहा किंवा अन्य गोष्टींच्या चवी बद्दल नंतर सवयीने बोलले जाते....पण चव काय पदार्थांची असते... ज्या भावनेने तो पदार्थ तुम्हाला ऑफर केला जातो..त्या भावनेची पहिली चव...वस्तू नाममात्रच असते पुष्कळदा...

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प्रेम म्हणजे ताजमहाल आहे.डोळे निवतील,

मनाला बरं वाटेल,ईतपतच खरं आहे.बांधण्याचा प्रयत्न करु नये.

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आयुष्यात एक क्षण भाळण्याचा ,उरलेले सगळे सांभाळण्याचे.

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सौख्याचा कोणता क्षण चिरंजीव झालाय ?

फक्त आठ्वानिंच्या राज्यात तो अमर. आणि आठवणी कधीच सुखद नसतात.

त्या दुखाच्या असोत वा आनंदाच्या. दुखाच्या असतील तर त्या पाई वाया गेलेला भूतकाल आठवतो, आणि त्या आठवणी सुखाच्या असतील तर ते क्षण गेले, म्हणुन त्रास

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आयुष्यातले आनंदाचे अनेक क्षण, अपेक्षेचे हुन्द्के, दुक्खाचे कढ आणि आवर घातलेले आवेग - हे ज्याचे त्यालाच माहित असतात. एखादा तरी साक्षीदार अशा उन्मलुन् जनाच्या क्षणी असावा या सारखी इच्छा पूरी न होने ह्यासरखा शाप नाही. पण साक्षीदार मिलुन त्याला त्यातली उत्कटता न कलने ह्यासरखी वेदना नाही. त्यापेक्षा एकलेपनाचा शाप बरा

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पशू माणसांपेक्षा जास्त श्रेष्ठ आहेत कारण ते INSTINCT वर जगतात...

बेदम वजन वाढलंय म्हणून घारीला उडता येत नाही, किंवा एखादा मासा बुडाला असं कधी ऐकलंय का ??

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"सर्वात जिवघेणा क्षण कोणता? खूप सद्भावनेनं एखादी गोष्ट करायला जावं आणि स्वतःचा काहीही अपराध नसताना पदरी फक्त वाईटपणा यावा, सद-हेतूंचीच शंका घेतली जावी, हा!"

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प्रश्नांपासून नेहमीच पळता येत नाही.

कधी ना कधी ते पळणार्‍याला गाठतातच

पळवाटा मुक्कामाला पोहोचवत नाहीत.

मुक्कामाला पोहोचवतात ते सरळ रस्तेच

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प्रत्येक सौख्याची किंमत त्याच्या मूल्यमापनाइतकी असते. काहीही फुकट नसतं आणि कोणताही सौदा स्वस्तात होत नाही. काही गोष्टींची किंमत अगोदर मोजावी लागते, काहींची नंतर!

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"आयुष्याची व्याख्या अत्यंत सोपी आहे. दोन गरजांची स्पर्धा म्हणजे आयुष्य. ज्याची गरज अगोदर संपते तो तुम्हाला सोडुन जातो."

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पारिजातकाचं आयूष्य लाभलं तरी चालेल. पण लयलुट करायची ती सुगंधाचीच !

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समस्या नावाची वस्तूच अस्तित्वात नसते. एक विशिष्ट परिस्थिती निर्माण होते आणि तारतम्याने वागायचे असते. त्याचप्रमाणे एक माणूस दूसर्‍या माणसाच्या संदर्भात एका ठराविक मर्यादे पर्यंतच विचार करू शकतो किंवा मदत करू शकतो.म्हणून एवढ्यासाठीच कुणालाही बदलण्याच्या खटाटोपात माणसाने

पडू नये. असह्य झालं तर अलिप्त व्हावं, उपदेशक होउ नये.

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मनात विचारांची साखळी असली कि रस्ता त्या साखळीपेक्षा कधीच लांब नसतो,

पण मनात नुसती ओढ असली कि रस्ता संपता संपत नाही.

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ियोग झाल्यावर माणुस का रडतो?

-ते फक्त वियोगाचं दुःख नसतं. जिवंतपणी आपण त्या व्यक्तीवर जे अन्याय केलेले असतात,

त्याला आपल्यापायी जे दुःख भोगावं लागलेलं असतं, त्या जाणिवेचं दुःखही त्यात असतं.

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"तंञावर फ़क्त यंञच जिंकता येतात. मनं जिंकण्यासाठी मंञ सापडावा लागतो."

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"स्वत:चा पराभव जेव्हा स्वत:जवळ मान्य करावसा वाटत नाही तेव्हा डोळ्यांतुन

येणार पाणी पापणीच्या आत जिरवायचं असत."

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ज्याला प्रेम समझतं तो वेळ पाळतो नि ज्याला फ़क्त स्वार्थ समझतो तो वेळ साधतो

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"म्रुत्युवर कोणाला विजय मिळवता येत नाही.त्याचं कारण तो वेळ सा.भाळतो वर्तमान्लाळ जपतो मागच्य पुढच्या क्ष्शणाचं तो देणं लागत नाही."

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निर्णय न घेता येणं यापेक्ष्शा मोठा दोष नाही.

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सुख कधी मागुन मिळत नाही तर ते दुसर्याल दिल्याने मिळते

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भीती वाटल्याशिवाय माणुस नम्र होत नाही.

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